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सोमवार, 25 मार्च 2024

होली है पर्याय प्रेम का!





रंगपर्व की हार्दिक शुभेच्छाएँ स्वीकारें!  

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होली है पर्याय प्रेम का

  • ऋषभदेव शर्मा 


सिर पर धरे धुएँ की गठरी
मुँह पर मले गुलाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !

1.
होली है पर्याय खुशी का
खुलें
और
खिल जाएँ हम;
होली है पर्याय नशे का -
पिएँ
और
भर जाएँ हम;
होली है पर्याय रंग का -
रँगें
और
रँग जाएँ हम;
होली है पर्याय प्रेम का -
मिलें
और
खो जाएँ हम;
होली है पर्याय क्षमा का -
घुलें
और
धुल जाएँ गम !

मन के घाव
सभी भर जाएँ,
मिटें द्वेष जंजाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !


2.
होली है उल्लास
हास से भरी ठिठोली,
होली ही है रास
और है वंशी होली
होली स्वयम् मिठास
प्रेम की गाली है,
पके चने के खेत
गेहुँ की बाली है
सरसों के पीले सर में
लहरी हरियाली है,
यह रात पूर्णिमा वाली
पगली
मतवाली है।

मादकता में सब डूबें
नाचें
गलबहियाँ डालें;
तुम रहो न राजा
राजा
मैं आज नहीं कंगाल;
चले हम
धोने रंज मलाल !


3.
गाली दे तुम हँसो
और मैं तुमको गले लगाऊँ,
अभी कृष्ण मैं बनूँ
और फिर राधा भी बन जाऊँ;
पल में शिव-शंकर बन जाएँ
पल में भूत मंडली हो।

ढोल बजें,
थिरकें नट-नागर,
जनगण करें धमाल;
चले हम
धोने रंज मलाल! 000

रविवार, 24 मार्च 2024

अनन्य सत्यनिष्ठा के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

 










अनन्य सत्यनिष्ठा के पर्व

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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सत्य का प्रह्लाद 

  • ऋषभदेव शर्मा


झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!


1.
जो पिता की भूमिका में
मंच पर उतरे,
          विधाता हो गए वे।
जीभ में तकुए पिरोए,
आँख कस दी पट्टियों से,
कान में जयघोष ढाला,
            आह सुनने पर लगे प्रतिबंध,
            पीडितों से कट गए संबंध,
            चीख के होठों पडा़ ताला।
सत्य ने खतरा उठाया
तोड़ सब प्रतिबंध
मुक्ति का संगीत गाया।
खुल गए पर पक्षियों के
हँस पडे़ झरने,
खिल उठीं कलियाँ चटख कर
पिघलकर हिमनद बहे।

कुर्सियों के कान में कलरव पडा़!

झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!


2.

पुत्र, पत्नी, प्रेमिका हो
या प्रजा हो,
मुकुट के आगे सभी
            प्रतिपक्ष हैं।
मुकुट में धड़कन कहाँ
            दिल ही नहीं है,
मुकुट का अपना-पराया कुछ नहीं है।
मुकुट में कविता कहाँ, संगीत कैसा?
शब्द से भयभीत शासन के लिए
मुक्ति की अभिव्यक्ति
भीषण कर्म है,
              विद्रोह है!

द्रोह का है दण्ड भारी!
साँप की बहरी पिटारी!
हाथियों के पाँव भारी!

पर्वतों के शिखर से
            भूमि पर पटका गया!
धूलि बन फिर सिर चढा़!

झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!


3.

न्याय राजा का यही है:
रीति ऐसी ही रही है:
मुकुट तो गलती नहीं करता,
केवल प्रजा दोषी रही है।
है जरूरी
          दोष धोने के लिए
          जन की परीक्षा
          (अग्नि परीक्षा)!
झेल कर अपमान भी
जन कूदता है आग में
            बन कर सती, सीता कभी,
            ईसा कभी, मीरा कभी,
            सुकरात सा व कबीर सा।

सत्य का पाखी अमर
फीनिक्स - मरजीवा,
अग्निजेता, अग्निचेता - वह प्रमथ्यु

बलिदान की चट्टान पर
मुस्कान के जैसा जडा़।

झूठ की चादर लपेटे
जल रही होली;
सत्य का प्रह्लाद लपटों में खडा़!

000



मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

इंदुकांत आंगिरस की प्रेम कविताएँ "सहयात्री"

 


भूमिका

कभी न मुरझाने वाले वसंत का मदनोत्सव


बहुभाषाविद् तथा बहुमुखी सर्जनात्मक प्रतिभा के धनी साहित्यकार इंदुकांत आंगिरस की इस कृति “सहयात्री” के बहाने मुझे उनकी अनंत प्रेमयात्रा का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला। यह अनंत प्रेमयात्रा अस्तित्व और सृजन की निरंतरता की यात्रा है। यहाँ तूलिका और लेखनी एक साथ यात्रा पर निकलती हैं और प्रेम का एक ऐसा निजी संसार रचती हैं, जिसमें समस्त जड़-चेतन सृष्टि समा जाती है। विश्व कला के साथ भारतीय कविता की इस चामत्कारिक जुगलबंदी के लिए कवि और चित्रकार दोनों अभिनंदनीय हैं। 


कलाकार और कवि दोनों ही मूलतः चित्रकार हैं। कलाकार ने रेखाचित्र रचे हैं और कवि ने शब्दचित्र आँके हैं। रेखाओं ने शब्दों को मूर्तित किया है और शब्दों ने रेखाओं को अमूर्त वाणी देकर चिर जीवन का वरदान दिया है। कहना न होगा कि कवि आंगिरस की ये कविताएँ आत्मा पर अंकित भित्तिचित्रों की प्रतिध्वनियाँ हैं। चित्रांकन और शब्दांकन का यह रिश्ता यों तो बहुत पुराना है। लेकिन कवि की नित्य नवोन्मेषकारी लेखनी ने चित्रों को कुछ इस तरह शब्दों में ढाला है कि प्रेम की प्रत्येक सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोदशा इन कविताओं में अत्यंत समर्थ उपमाओं, अप्रस्तुतों, रूपकों, प्रतीकों, बिंबों और पुराकथाओं के सहारे साक्षात साकार हो उठती है। अत्यंत कोमल शब्दों पर झेला गया चित्रकला का यह सौंदर्य इन कविताओं को अप्रतिम और अद्भुत आह्लाद का हेतु बनाता है। चित्रों का कविता में यह अनुवाद पाठक की स्मृति में अंकित होने की योग्यता रखता है। 


‘सहयात्री’ प्रेम की गहन अनुभूतियों का चित्रात्मक आख्यान है। एक ऐसा आख्यान जो सूर्य की पहली किरण बनकर आत्मा पर दस्तक देता है। यह दस्तक आत्मा के कभी न मुरझाने वाले वसंत की पहली आहट बन जाती है। वही वसंत जिसे प्रेमीजन प्रेमाग्नि में जलकर प्राप्त किया करते हैं। रंगों और गंधों का एक उल्लास पर्व। प्रेम पंथ पर एक-दूसरे का साथ सूर्य की ऐसी सुनहरी किरणों की तरह है जिनसे प्रेमी आत्माएँ जगमगा उठती हैं और मरुभूमि में भी प्रेम के वासंती फूल महमहाने लगते है। दो प्रेमियों की आत्म-गंध एक-दूसरे में गहरे रच-बस कर गंधस्नात पुष्पों की मुस्कान में बदल जाती है। साँसें भी फूलों की मानिंद खिल उठती हैं और आत्मा की पलकों पर प्रेम-पुष्पों का दीपक झिलमिलाने लगता है। 


वसंत की यह लीला फूलों में तो नाच ही रही है, लेकिन इस अभिव्यक्ति के मूल में कुछ ऐसा है जो अव्यक्त है, परोक्ष है। चित्रकार और कवि दोनों को ही पुहुप- बास से भी पतले उस तत्व की तलाश है। वे महसूस करते हैं कि प्रेम के अनंत वृक्ष ने अब अपनी जड़ें फैला ली हैं। इन जड़ों में प्रकृति और पुरुष का रक्त किसी उन्मुक्त झरने की तरह बह रहा है। प्रेमी हों या योगी सब इसी झरने में तो भींजना चाहते हैं। तभी तो जिंदगी की सरगम फूटती है और सदियों की चौखट पर चाँदनी के फूल मुस्कराने लगते हैं। कवि को चिंता है कि मुग्ध विरहिणी कहीं चंचल हवा की छद्म सादगी से भ्रमित न हो जाए और उसके साथ वासंती खुशबू वाले प्रेमपत्र न भेज दे। हवाएँ गोपनीय को सार्वजनिक बनाने में माहिर होती हैं न! और प्रेमीजन निजता में डूबे रहना चाहते हैं - ‘निपजी में साझी घणा, बाँटे नहीं कबीर’!


प्रेमी और प्रेमास्पद की यह सहयात्रा नित्य नए क्षितिजों का संधान करती है। प्रेम की इस अनंत यात्रा पर प्रेमपात्र का साथ उस नाव की तरह है जो साँसों की लहरों पर तिरकर उस पार उतरती है। दोनों को लगता है कि वे बेल की तरह एक-दूसरे की आत्मा के फूल पर लिपटते जा रहे हैं। उनका यह सामीप्य और सायुज्य चिर मिलन के अद्वैत की भूमिका है। उन्हें विश्वास है कि उनकी प्रेमाग्नि की तपन से बर्फ के पहाड़ पिघल जाएँगे और प्रेम की पावन नदी बह निकलेगी। यही नहीं, उनके प्रेमराग की धुन सुनकर आकाश गूँगा हो जाएगा और धरती बहरी बन जाएगी। यही तो है प्रेम की समाधि में गूँजने वाला दिव्य अनाहत नाद, जो तब सुन पड़ता है जब राधा और माधव एक हो जाते हैं। इसीलिए कवि इंदुकांत आंगिरस की राधा चाहती है कि सदा सदा के लिए माधव की हो जाए, अपनी पलकें बंद करे और उन्हीं में खो जाए। 


इस अवस्था में दो आत्माएँ एक होकर सौ रंगों वाला हरदिल अजीज़ अनूठा इंद्रधनुष सिरजती हैं। आसमान में इंद्रधनुष उगता है, तो धरती पर महुए का एक फूल मोतियों की तरह खिलता है। मुहब्बत के इस महमहाते महुए को जन्म और मृत्यु के घेरे भी आत्मा की धरती पर खिलने से नहीं रोक सकते। प्रेम के स्पर्श में एक ऐसी अलौकिकता है कि उसे पाकर प्रेमीजन सुगंधित फूलों की मानिंद खिल उठते हैं और वसंत के पंखों पर सवार होकर खुद भी पारस-हवा बन जाते हैं। आने को ऐसे विपरीत अवसर भी आते हैं जब ज़माने की आँधियाँ प्रेम-वृक्ष को झिंझोड़ डालती हैं, लेकिन प्रेमीजन पराजित नहीं होते और उनके प्रेम की किश्तियाँ प्रेम-झील में बेख़ौफ़ तिरती रहती हैं। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि दो आत्माओं के मिलन का प्रेमफूल वसंत की दहलीज़ पर अनंत काल तक इसी तरह खिलता रहेगा। इस विश्वास का कारण यह अनुभूति है कि हमारे अनंत प्रेम की अग्नि लपटों की रोशनी अब अखिल ब्रह्मांड में फैल रही है और सूरज रोज़ इसी रोशनी से उगता है। इसी रोशनी से तो विनाशकारी महायुद्धों के बीच सृजन के शंखनाद से प्रेमऋचाएँ तरंगित होती हैं। पिंड से ब्रह्मांड तक की यह अनंत यात्रा  नित्य प्रकाशमयी और अमृतमयी है।


‘सहयात्री’ की ये चित्र-कविताएँ एक विशेष पैटर्न में रची गई हैं। हर कविता की अंतिम पंक्तियाँ उसमें व्यंजित चित्र को विशेष ‘उभार’ देती हैं, जैसे-


आओ प्रिय!


प्रेमकिश्ती के सब पालों को खोल दें

अनबूझी दिशा में प्रेमकिश्ती को छोड़ दें


दरिया की लहरों पर प्रेमदीपक जला दें

चाँदनी के फूलों से प्रेममंदिर सजा लें


हम एक-दूसरे की बाँहों में क़ैद हो जाएँ

इक-दूजे में खो जाएँ और ग़ैब हो जाएँ


इस प्रेमनदी में डूबकर हो जाएँ पार

युगों युगों तक कायम रहे अपना प्यार


इस तन्हा पंछी की पीड़ा में हम भी रोएँ

अपने अपने ग़मों के दाग़ प्रेमजल से धोएँ


चाँदनी की चादर ओढ़ सदा के लिए सो जाएँ

एक-दूसरे को ओढ़ लें, एक-दूसरे में खो जाएँ


प्रेम की इस अद्भुत रोशनी में हम मिलकर नहाएँ

और अपने महामिलन की कथा हम सबको सुनाएँ


प्रेमदीपक को अपने लहू से जलाते चलें

इस दुनिया के हर अँधेरे को मिटाते चलें


हम मिलकर शंखनाद करें,  प्रेमबिगुल बजाएँ

इस धरती से नफ़रत का नामोनिशान मिटाएँ


इन काव्यपंक्तियों से यह भी स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि प्रेम की एकाग्रता और निजता के पल भी अंततः लोककल्याण के निमित्त समर्पित और संकल्पित होकर विश्वात्मा में लीन हो जाते हैं। यही तो प्रेममार्ग के सहयात्रियों की मुक्ति है! 


सर्जनात्मकता के इस मनोरम और रमणीय, दर्शनीय और पठनीय अभियान के प्रकाशन के अवसर पर कवि और कलाकार दोनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!


  • ऋषभदेव शर्मा


वसंत पंचमी 

14 फ़रवरी, 2024

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

डॉ. रमा द्विवेदी की लघुकथाएँ : मैं द्रौपदी नहीं हूँ

 


डॉ. रमा द्विवेदी की लघुकथाएँ

  • ऋषभदेव शर्मा


डॉ. रमा द्विवेदी हैदराबाद के हिंदी जगत में एक सुमधुर स्वर की धनी कवयित्री के रूप में सुचर्चित और लोकप्रिय हैं। उनके सुरम्य गीत हर पीढ़ी के काव्यरसिकों को पसंद आते हैं। लेकिन उनका रचना संसार केवल कविता तक सीमित नहीं है। वे पुस्तक समीक्षा और कथा-कहानी भी उसी तरह डूब कर लिखती हैं जिस तरह गीत, दोहे, मुक्तक और हाइकू। इसका जीवंत प्रमाण है उनका गत दिनों प्रकाशित लघुकथा संकलन “मैं द्रौपदी नहीं हूँ”।


संकलन की शीर्ष कथा ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ में भारतीय समाज में प्रचलित घरेलू हिंसा की विकृति और स्त्री की विवशता को दर्शाया गया है। घर की शांति और एकजुटता के नाम पर बहुओं के उत्पीड़न की यह कहानी आज भी बहुत से घरों में दोहराई जाती है। अकेली पड़ने पर बहुत बार बहुएँ इस उत्पीड़न के समक्ष या तो झुक जाती हैं या टूट जाती हैं। लेकिन रमा द्विवेदी की कथानायिका अपने पति के दब्बूपन और देवर की उद्दंडता दोनों का प्रतिकार करती है तथा खुद को द्वापर की द्रौपदी जैसी भाइयों में बँट जाने वाली वस्तु नहीं बनने देती। कथा का अंत खुला हुआ है क्योंकि यह कल्पना पाठक पर छोड़ दी गई है कि आत्मसम्मान की रक्षा पर उतारू बहू के साथ दकियानूसी परिवार और पुरुषवादी समाज आगे क्या सुलूक करेगा! इस लिहाज से यह लघुकथा किसी दीर्घकथा की प्रस्तावना भी कही जा सकती है। 


इतिवृत्तात्मकता और उपदेशात्मकता को लघुकथा लेखन की चुनौती कहा जा सकता है। यह चुनौती कथाकार रमा द्विवेदी के सामने भी बार बार उपस्थित होती है। इसका मुकाबला करने के लिए वे संक्षेप और संवाद का रास्ता अपनाती हैं। इसमें उन्हें कितनी सफलता मिल पाई है, इस बारे में मतभेद हो सकता है। लेकिन ‘चैलेंज’ इसका अच्छा उदाहरण है जिसमें लेखिका ने सोशल मीडिया के खतरों के बारे में पाठकों को आगाह किया है। ‘चुंबक-सा आकर्षण’ में भी फेसबुक के आभासी मोहजाल में फँसने से बचने की सीख देने के लिए ऐसे ही संवाद की अवतारणा की गई है। अन्यत्र ‘धारणा’ में यात्रियों के संवाद के माध्यम से लेखिका ने अपनी यह धारणा स्थापित की है कि उत्तर प्रदेश भ्रष्टाचार और अव्यवस्था का गढ़ है और दक्षिण भारत, उसमें भी हैदराबाद, में सुकून ही सुकून है क्योंकि यहाँ राजनीतिक व्यवस्था उत्तर से बेहतर है। (यह बात अलग है कि इसी हैदराबाद में विधानसभा चुनाव में सत्ता परिवर्तन राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर होते देखा गया है!) ऐसे सरलीकरणों से बचा जाना चाहिए, वरना उन बयानों की तरफ शायद ही उँगली उठाई जा सके जिनमें हिंदीभाषियों को गोमूत्र पीने और संडास साफ करने वाले कहकर गरियाया जाता है। वैसे भी लघुकथा एक व्यंजनाप्रधान विधा है। इस दृष्टि से ‘टैगियासुर’ अवश्य ही रोचक और व्यंजक है। 


इसमें दोराय नहीं कि लघुकथाकार का एक बड़ा प्रयोजन वैयक्तिक और सामाजिक जीवन की विसंगतियों और पाखंड पर चोट करना भी है। लेकिन उसे ध्यान रखना पड़ता है कि लघुकथा भी कथारस की माँग करती है। इसके बावजूद सामाजिक चेतना संपन्न लेखक बहुत बार अपने सामाजिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए कथात्मकता की बलि चढ़ाने में भी संकोच नहीं करते। लेखिका रमा द्विवेदी भी रचनाकार के संदेश को कला से ऊपर मानती हैं। ‘प्री वेडिंग शूट’ में इसीलिए वे कथाकार पर समाजसुधारक को हावी हो जाने देती हैं। ‘यह कैसी शादी’ में यद्यपि लेखिका ने सोलोगेमी को अमान्य करार दिया है, लेकिन बड़े मार्के की यह टिप्पणी भी की है कि प्यार में धोखा खाने से और तलाक़ लेने से तो अच्छा है कि खुद से ही विवाह करो और खुद से ही प्यार करो!


लेखिका की यह सामाजिक जागरूकता प्रायः सभी लघुकथाओं में झलकती है। कहीं प्रत्यक्ष, तो कहीं प्रच्छन्न। यह हमारे समय की कुरूप सच्चाई है कि अर्थ-पिशाचों से भरे इस स्वार्थी समाज में अनुपयोगी और बोझ बन चुके बूढ़ों के लिए अपने ही बच्चों के घरों में जगह नहीं बची है - दिलों में भी नहीं। खासकर अकेली विधवा माताओं की स्थिति तो बेहद कारुणिक है। ‘माई की ममता’ में ऐसी ही एक माँ की त्रासद गाथा वर्णित है। लेकिन लेखिका माँ के लिए निष्ठुर बेटों को दंडित होते नहीं देखना चाहती और ज़रा सा दबाव पड़ते ही बेटों का हृदय परिवर्तन करा देती हैं। अब यह आगे की बात है कि इन कृतघ्न बेटों का यह बदला चरित्र कितनी देर टिकता है। कहीं ऐसा न हो कि थाने से निकलते ही वे फिर से कपूत साबित हों! सोचने को मजबूर करती यह लघुकथा काफी संभावनापूर्ण कही जा सकती है। 


कुल मिलाकर, ‘मैं द्रौपदी नहीं हूँ’ सामाजिक चेतना संपन्न  तथा सोद्देश्य लघुकथाओं का सुरुचिपूर्ण संकलन है। ये लघुकथाएँ अपनी सहज भाषा और प्रवाहपूर्ण कथन शैली के सहारे पाठक को देर तक बाँधे रखने में सक्षम हैं। 000